Feb 1, 2009

मेरी उलझन

मैं १८ साल का हूँ और दिल्ली में फर्स्ट इयर में पढता हूँ. मैं बाकी सभी लड़कों की तरह लड़कियों में भरपूर दिलचस्पी रखता हूँ, पर कुछ महीनों पहले जब एक सामान्य दिखने वाले लड़के ने मुझमे दिलचस्पी दिखाई तो मैं उसके साथ अनजाने में ही बंधता गया. मैंने अपने आप को बहुत रोकना चाहा पर मजबूर हो गया. मेरा वो दोस्त बहुत अच्छा है, पर मैं उससे डरता हूँ क्योंकि मैं 'गे' नहीं बनना चाहता. क्या आपको लगता है कि मैं 'गे' हूँ (मेरा दोस्त अपने आप को गे नहीं मानता, और इससे मुझे और कन्फ्यूज़न होती है). मुझे 'गे' नाम से ही नफरत है. मैं क्या करुँ?

ये बात समझाना कुछ मुश्किल है, पर कोशिश करता हूँ.

ये होमो-हेट्रो की दीवार पश्चिमी सभ्यता की पुरुषों को पुरुषों से तोड़ने की साजिश है, जो बीमारी अब भारत के तीव्र पाश्चात्यीकरण के साथ-साथ, हमारे समाज में भी फैल गई है. यह दीवार अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक है.

सच तो यह है कि लगभग सभी पुरुषों में दोनों लिंगों (पुरूष व स्त्री, या कभी-कभी तृतीय प्रकृति के नरों) के प्रति यौन आकर्षण कुदरती रूप से होता है. सामाजिक दबाव के कारण पुरुषों के प्रति यौन भावना दब जाती है, पर अगर उसे कोई उभार दे तो वह फिर उभर सकती है.

सच तो यह है कि पुरूष से सम्बन्ध बनाने से आप 'गे' या 'होमोसेक्सुअल' नहीं बनते. अगर आप 'गे' का इतिहास पढ़ें तो ये बात साफ़ है कि हमेशा, केवल तृतीय प्रकृति (स्त्री प्रकृति के नर) जो कि अपनी गुदा को योनि की तरह इस्तेमाल कर के पुरुषों से गुदामैथुन करवाना चाहते थे, उन्हें ही हर सदी में 'गे' माना गया है, पुरुषों से अलग श्रेणी में रक्खा गया है, व तरह-तरह के नामों से जाना जाता रहा है, जैसे कि, कोति, हिजड़ा, पन्डका, कैटामाईट, आदि. पर दो पुरुषों के बीच का प्रेम कभी भी इस 'गे' कि श्रेणी में नहीं आया. बल्कि, कभी इसे मर्दानगी का प्रतीक माना जाता था. उदाहरण के लिए, सिकंदर महान ने भी अपने युग के बाकी पुरुषों की तरह पुरूष से प्रेम किया पर वह कैटामाईट या होमो नहीं था.

पाश्चात्य समाज ने तृतीय प्रकृति की परिभाषा बदल के उसे 'पुरूष-पुरूष प्रेम' के रूप में परिभाषित करके, इस प्रेम को बदनाम कर के पुरुषों के लिए वर्जित करने की साजिश रची है.

मेरी उम्र २७ वर्ष है. मैं शादी-शुदा हूँ पर पिछले कुछ महीनों से मेरा मन sex में नहीं लगता. क्या ये सामान्य है या मुझे कोई बीमारी है.

सेक्स की इच्छा के कम होने के बहुत से कारण हो सकते हैं. और हर किसी के जीवन में इस तरह के दौर आते हैं, और फिर अपने आप चले जाते हैं. अक्सर ये आज कल की भाग दौड़ वाले जीवन के तनाव की वजह से हो सकता है. किसी और काम में लम्बी व्यस्तता, या दिमागी उलझन की वज़ह से भी ये हो सकता है. ये तनाव दूर होने से आप की सेक्स लाइफ दोबारा सामान्य हो सकती है. आप इसके लिए योग व मेडिटेशन आदि का सहारा भी ले सकते हैं.

इसके दूसरे कारण भी हो सकते हैं. कुछ तरह की दवाइयाँ जैसे, रक्त चाप व तनाव की दवाएं अगर लंबे समय तक ली जायें तो ये सेक्स की इच्छा कम कर सकती हैं. डायबिटीस जैसी बीमारियाँ भी सेक्स की इच्छा कम कर सकती हैं. ये होर्मोन्स की कमी की वजह से भी हो सकता है. इसीलिए, आप को एक डॉक्टर की सलाह भी लेनी चाहिए.

मैंने सुना है की खून से भी ऐड्स हो सकता है. क्या नाइ के उस्तरे से भी हो सकता है?

एच आई वी का कीटाणु ग्रसित व्यक्ति के शारीरिक द्रव्यों में रहता है, जिनमे खून भी शामिल है. ये रक्त अगर नाइ के उस्तरे पर लग जाए तो जब तक इस खून में नमी रहेगी यह कीटाणु जीवित रहेगा और दूसरे व्यक्ति को संक्रमित कर सकता है. इसीलिए समझदारी इसीमे है कि उस्तरा ब्लेड बदल कर प्रयोग किया जाए.

मेरी शादी को चार साल हुए हैं. मैंने अपनी प्रेमिका के साथ असुरक्षित सेक्स किया और अगले दिन अपनी पत्नी के साथ भी सम्भोग किया. अब वो गर्भवती है और काफ़ी बीमार रहती है. क्या यह लक्षण ऐड्स के हो सकते हैं?

हालांकि, ऐड्स का कीटाणु असुरक्षित सेक्स के द्बारा एक से दूसरे में फैलता है, पर इसके लिए पहले व्यक्ति को भी ऐड्स होना चाहिए. अगर आपकी प्रेमिका एच आई वी से ग्रसित है, तभी वो कीटाणु पहले आप को और फिर आपकी पत्नी को मिलेगा. और एच आई वी संक्रमण के बाड़ ऐड्स बीमारी बनने में काफ़ी समय लगता है. इस की सम्भावना कम है की आपकी पत्नी को ऐड्स होगा, पर आप को भविष्य में सावधान होने की ज़रूरत है, क्योंकि आप अपने यौन व्यवहार से कई जीवन को खतरे में डाल सकते हैं. आप को चाहिए की आप अपनी पत्नी की ठीक तरह से मेडिकल जांच करवाएं.
In my school and college days I was an ardent supporter of sex education. At that time it seemed that to deny sex education was to deny human rights. It was important not only to help fight aids, but also to bring more freedom in India around sexuality. 

But then I slowly started to see that whatever was happening in the name of sex education was not really what was needed. There were other agendas behind giving sex education than was openly acknowledged. Today, I feel that sex education in India has gone completely in the wrong direction, and is giving rise to several social ills, that weren't there at all in the first place.

There are several issues involved here. First of all, sex education seems to have been hijacked by the forces of westernization, whose only aim to give sex education seems to be to implant western values in our culture, without any concern to our own sensibilities. They start with the notion that Indian values are inherently trash and outdated and that the Western values are superior. But I question that assumption.

I am not saying that the Western values are all bad. And I'm not saying that our values are always good. I am not for keeping the harmful elements of our own value system, and I am also not opposed to borrowing from the West what is good about them. But, this cultural exchange is a very sensitive process, and before we take on a foreign value system, we have to study it carefully, discuss it in our own society thoroughly and then if there is a need to change, then we should take care not to just copy the values blindly, but adapt them to our own circumstances, needs and aspirations as a society.

But what is happening is exactly the opposite. They are thrusting down negative social values relentlessly through the media, and other forces of Westernization, and the sex education has just become another tool for these forces to carry on their agenda. They are so conceited, and have such blind faith in the West that they think that anything that comes from the advanced nations has to be of immense value.

We are being deluged by Western value system and life-styles through TV which is affecting our young by invading our living rooms. It all started when the Indian government decided to open the media to foreign players, who came with enormous financial, technological and political power. We Indians did not have time to save whatever was positive about our own culture, from this deluge. We have lost a lot of that ancient wisdom that had been guiding us. And a lot of negative ways of life, and those that may suit the west but are harmful for us, have been implanted in our midst so deeply that to weed it out will take ages.

Anything foreign when implanted in another environment can be disastrous. Like the exotic pine trees that were planted in Kumaon and Garhwal by the British, spread like wild fire and destroyed the local flora and fauna and played havoc with the fragile eco-system. Or like a particular kind of fish that was brought by the Europeans to Australia and thrown into local rivers, that soon started to prey on the unprepared fish and other species dwelling in the rivers since time immemorial. They were just not adapted to defend themselves from this foreign predator. And in a few years, the entire eco-system collapsed, as everything is dependant on one another. Something similar is happening with our value system and life-styles.

For sex-education to be useful, it has to 

प्लास्टिक बैगों हमें ख़त्म कर रहे हैं

Introduction:
"आपने अपने पूरे जीवन में जितना भी प्लास्टिक इस्तेमाल किया है, हर छोटे से छोटा टुकड़ा, जहाँ उसकी कोई ज़रूरत भी नहीं थी, वो आज भी हमारे पृथ्वी पर मौजूद है और धीरे-धीरे इसका दम घोंट रहा है"


इस साल के शुरू में ही दिल्ली सरकार ने प्लास्टिक बैगों के उपयोग पर रोक लगा दी है. शायद ये कदम २०१० में होने वाले कौमनवेल्थ खेलों को ध्यान में रख कर बनाये गए हैं, पर कईयों का मानना है कि ये कदम तो सरकार को बहुत पहले उठाना चाहिए था.

प्लास्टिक बैग खरीदारों और दुकानदारों के बीच खासे प्रचलित हैं क्योंकि ये सुविधाजनक, हल्के, मज़बूत व सस्ते होते हैं व खाने-पीने की चीज़ें और दूसरे सामान ढोने के लिए एक साफ़-सुथरा जरिया भी होते हैं. पर क्या कभी आपने गौर किया है कि प्लास्टिक बैग हमें कितना नुक्सान पहुंचाते हैं? सरकार ने प्लास्टिक बैगों पर पाबन्दी तो लगा दी है, पर इन चीज़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती, जिससे कि आम आदमी ये समझ नहीं पाता कि ये साधारण सा दिखने वाला, छोटा सा प्लास्टिक का बैग हमारे इतने बड़े पर्यावरण को क्या नुक्सान पहुँचा सकता है, और हम कैसे अपने जरा से आराम के लिए इस तहस-नहस में शामिल हैं. और जब तक कि हम ये समझ न लें हम इस मुहिम में दिल से शामिल नहीं हो सकते, और तब तक ये मुहिम सफल भी नहीं हो सकती.

प्लास्टिक बैगों की उपयोगिता एक छोटे समय के लिए ही होती है, और इसके बाद वो फेंक दिए जाते हैं. पर क्या आप जानते हैं की जैविक कूड़े के विपरीत, प्लास्टिक बैगों को गल कर पर्यावरण में वापिस मिलने के लिए कम से कम एक हज़ार वर्ष लगते हैं. इसीलिए ये कूड़े की तरह साल दर साल हमारे पर्यावरण में इकट्ठे होते रहते हैं. पूरे विश्व में हर रोज़ अरबों-खरबों प्लास्टिक के बैग फेंके जाते हैं और आप समझ सकते हैं की धीरे-धीरे हमारी ज़मीन, वन, नदियाँ, झीलें, तालाब, आदि सब इस घिनौने प्लास्टिक से भरते जा रहे हैं. ये न सिर्फ़ देखने में भद्दे लगते हैं, पर ये इन नदियों, वनों और उनमें रहने वाले प्राणियों और पेड़-पौधों का दम घोंटते जा रहे हैं.

क्या आप जानते हैं की हर वर्ष १,००,००० लाख से ज़्यादा जीव जंतु सिर्फ़ प्लास्टिक खाने से मर रहे हैं. इन जीव जंतुओं में सिर्फ़ हमारे मवेशी ही नहीं, परन्तु, वनों, नदियों, सागरों व झीलों में रहने वाले डॉल्फिन, व्हेल, कछुए, घोंघा, हिरन, पेंग्विन इत्यादि शामिल हैं. हमारे शहरों, गावों में भी हजारों गायें, कबूतर, व दूसरे पशु पक्षी इनका शिकार हो रहे हैं. जब ये प्लास्टिक बैग उड़ कर इन पशु पक्षियों के मुहं पर चिपक जाते हैं, तो उनकी दम घुटने से मृत्यू हो जाती है.

क्या आपने कभी किसी हरे भरे वन में प्लास्टिक के अनगिनत बैगों को हर तरफ़ बिखरे हुए देखा है -- ये बहुत भद्दे लगते हैं. और इनमे पानी वगरेह इकठ्ठा होने से कीटाणु भी जन्म लेते हैं जो इन वनों में रहने वाले पशु पक्षियों को और नुक्सान पहुंचाते हैं.

हमारी अपनी यमुना नदी भी इस प्लास्टिक के कहर से दूषित होती जा रही है, पर सरकार के पुलों पर ऊंचे-ऊंचे बाड़ लगाने के बावजूद हम इसमे प्लास्टिक बैग फेंकते हैं.

प्लास्टिक पेट्रोलियम व दूसरे प्राकृतिक गैसों से बनाया जाता है. जितना प्लास्टिक सिर्फ़ हमारे भारत में रोज फेंका जाता है, उसे बनाने में ही कई करोड़ गैलन तेल की खपत होती है. ये हमारे पेट्रोलियम के सीमित साधनों पर ज़बरदस्त बोझ हैं.

प्लास्टिक को लचीला बना कर बैगों का आकार देने में और इसे रंग करने में लेड और दूसरे विषैले रसायनों का उपयोग होता है. ये रसायन हमें कई तरह से नुक्सान पहुंचाते हैं. जब हम इनमे लाये खाने के पदार्धों का सेवन करते हैं तो ये रसायन उनमे मिल कर हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं और तरह-तरह की बीमारियों को जन्म देते हैं. यहाँ तक कि एक रिसर्च से ये भी पता लगा है कि ये रसायन अजन्मे बच्चों को भी नुक्सान पहुँचा सकते हैं.

जब ये प्लास्टिक बैग जलाये जाते हैं तो ये जहरीले गैस बन कर हमें और नुक्सान पहुंचाते हैं. साथ ही पशु-पक्षियों को भी.

हमारी टीम ने जब पूर्वी दिल्ली के इलाकों का दौरा किया तो पाया कि अभी भी हर तरह के प्लास्टिक बैग धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं. छोटे-मोटे व्यापारियों, सब्जी वालों इत्यादि को तो इस बैन के बारे में मालूमात ही नहीं है. लोगों से बात करने पर हमने पाया कि उनके इस बैन को लेकर मिले-जुले विचार हैं. व्यापारी और खरीदार दोनों का मानना है कि इससे उन्हें दिक्कत तो आयेगी. पर बहुत से लोग इस बैन की ज़रूरत भी समझते हैं.

तो अब समय है उन कपडे के झोलों को दोबारा कार्यान्वित करने का. हमारे पुराने तौर-तरीके काफ़ी बेहतर थे. ये झोले पेपर बैगों से बेहतर हैं, क्योंकि, एक तो ये मज़बूत होते हैं, दूसरा, पेपर बैगों को बनाने को बनाने में जंगल के जंगल सफाया हो जाते हैं. और इनमे भी बहुत से रसायनों का प्रयोग होता है. तो आईये कहें, हमारे देशी झोले जिंदाबाद!